सोमवार, 22 जुलाई 2024

Soil and Soil Conservation Chapter - मृदा एवं भूमि संरक्षण

मृदा अपरदन एवं भूमि अपक्षीर्णन एक साथ एक ऐसी समस्या उत्पन्न करते हैं जिसके कारण विश्व के पारिस्थितिक संतुलन में व्यवधान उत्पन्न होता है। इस पाठ में हम मृदा अपरदन एवं भूमि अपक्षीर्णन के कारणों की चर्चा करेंगे। आप मृदा अपरदन एवं भूमि अपक्षीर्णन की रोकथाम अथवा इन्हें कम करने के उपायों का अध्ययन भी करेंगे।

उद्देश्यः-

इस पाठ के अध्ययन के समापन के पश्चात, आप-

Ø  मृदा अपरदन को परिभाषित कर सकेंगे।

Ø  मृदा अपरदन के कारण, इसके दुष्प्रभाव एवं इसकी नियंत्रण की विधियों का वर्णन कर सकेंगे;

Ø  कृषि रसायनों (रासायनिक उर्वरकों एवं पीड़कनाशियों) के हानिकारक प्रभावों का वर्णन कर सकेंगे;

Ø  मृदा संरक्षण की विभिन्न विधियों का वर्णन कर सकेंगे;

Ø  भूमि-अपक्षीर्णन के लिए उत्तरदायी कारकों को सूचीबद्ध कर सकेंगे;

Ø  भूमि-अपक्षीर्णन के परिणामों एवं नियंत्रण विधियों का वर्णन कर सकेंगे।

17.1 मृदा अपरदन तथा भूमि-अपक्षीर्णन

जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि के कारण भूमि एवं मृदा संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप भूमि अपक्षीर्णन (Land degradation) एवं मृदा अपरदन हो रहा है। चित्र 17.1 में मृदा अपक्षीर्णन के कारकों का आपेक्षिक प्रभाव दिखाया गया है। वायु तथा जल जैसे कारक मृदा अपरदन के कारण होते हैं।

मृदा भूपर्पटी की वह सबसे ऊपरी परत है जिसकी खुदाई एवं जुताई की जा सकती है और जिसमें पौधे उगाए जाते हैं।

भूमि एक ठोस आधार है जो मानवों एवं बहुत से अन्य जीवों को भरण-पोषण प्रदान करता है।

विश्वव्यापी मृदा अपरदन कारकों के प्रतिशत को प्रदर्शित करता हुआ पाइ चार्ट (Pie Chart) (विश्व मानचित्र में मानव द्वारा अपक्षीर्णन 1990 के आंकड़े से परिवर्तित किया हुआ) विश्व स्तर पर 4.85 विलियन एकड़ (1.96 बिलियन हैक्टेयर) से भी अधिक या भूभाग के वनस्पतीय क्षेत्र का 17% मानवों द्वारा अपक्षीर्णन हो चुका है। चित्र 17.2 में दिखाया गया है कि अपक्षीर्णन के कारण पृथ्वी के कुछ क्षेत्र संकट का सामना कर रहे हैं।

मृदा एवं भूमि संरक्षण

मृदा अपरदन (Soil erosion)

भूमि से शीर्षस्थ मृदा कणों का शिथिल हो जाना या इनका विस्थापन होना मृदा अपरदन कहलाता है। मृदा अपरदन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो सभी प्रकार की भूमियों पर होती है। मृदा अपरदन की प्रक्रिया तीव्र अथवा धीमी दर से हो सकती है।

भूमि अपक्षीर्णन (Land degradation)

भूमि की गुणवत्ता में आयी कमी को अपक्षीर्णन कहते हैं। भूमि अपक्षीर्णन के कारण भूमि की फसल उत्पादन क्षमता कम हो जाती है।

 

17.2 मृदा अपरदन की गति

प्रकृति में मृदा अपरदन एक (क) धीमी प्रक्रिया (अथवा भू-वैज्ञानिक अपरदन) अथवा (ख) एक तीव्र प्रक्रिया वनोन्मूलन, बाढ़, बवंडरों अथवा अन्य मानवीय गतिविधियों के कारण हो सकती है। इन दोनों प्रक्रियाओं का नीचे वर्णन किया गया है:

(क) भूवैज्ञानिक अपरदन (Geological erosion)

भू-वैज्ञानिक अपरदन एक धीमी प्रक्रिया है जो लाखों वर्षों से दिखाई न देते हुए भी निरंतर घटित हो रही है। इसका पहला चरण, मृदा के निर्माण की प्रक्रिया है जिसे अपक्षयण (weathering) कहते हैं। यह एक भौतिक-रसायन प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया के अन्तर्गत चट्टानें हवा एवं पानी के द्वारा छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त हो जाती है जिससे मृदा के कणों का निर्माण होता है।

(ख) त्वरित अपरदन (Accelerated erosion)

त्वरित अपरदन उस समय होता है जब पृथ्वी का सुरक्षात्मक वनस्पति आवरण नष्ट हो जाता है। ऐसा प्राकृतिक कारणों जैसे बाढ़ अथवा मानवीय गतिविधियों के कारण होता है। खेती करना त्वरित अपरदन के लिए उत्तरदायी प्रमुख मानवीय गतिविधियों में से एक है। जिस भूमि पर खेती की जाती है, वह वायु, जल जैसे प्राकृतिक कारणों के प्रति अतिसंवेदनशील होती है। मानव गतिविधियां जल एवं वायु द्वारा होने वाले ऊपरी मृदा को हटाने की गति में वृद्धि कर देती है। त्वरित अपरदन की दर एवं मात्रा प्राकृतिक भूवैज्ञानिक मृदा अपरदन की अपेक्षा बहुत अधिक होती है।

 

17.3 मृदा अपरदन के प्रकार

मृदा अपरदन का वर्गीकरण अपरदन के लिए उत्तरदायी भौतिक कारकों के आधार पर किया जाता है। विभिन्न प्रकार के मृदा अपरदन निम्नलिखित हैं:

(क) जल अपरदन

(ख) पवन अपरदन

(क) जल अपरदन

बहता हुआ जल उन मुख्य कारकों में से एक है, जो मृदा कणों को बहा ले जाते हैं। जल द्वारा मृदा का अपरदन वर्षा की बूंदों, लहरों अथवा बर्फ के माध्यम से होता है।

जल द्वारा मृदा अपरदन को अपरदन की तीव्रता एवं प्रकृति के अनुसार निम्न नामों से पुकारा जाता है।

(i) वर्षा बूंद अपरदन (Raindrop erosion)

(ii) परत अपरदन (Sheet erosion)

(iii) नलिका अपरदन (Rill erosion)

(iv) नदी तट अपरदन (Steam banks erosion)

(v) भूस्खलन के कारण मृदा अपरदन (Erosion due to land slide)

(vi) समुद्र तटीय अपरदन (Coastal erosion)

(i) वर्षा बूंद अपरदन

भूमि पर गिरने वाली वर्षा की बूंदें मृदा के कणों को एक दूसरे से अलग कर देती हैं। शिथिल मृदा के कण बहते हुए जल के साथ दूर चले जाते हैं। इस प्रकार वर्षा की बूंदें जल अपरदन को प्रारम्भ कर देती हैं। वर्षा की एक बूंद का औसत आकार लगभग 5 मिमी होता है तथा यह हवा से होकर 32 किमी/घंटा के वेग से मृदा से टकराती हैं। बड़े आकार की बूंद एवं हवा के झोंके मृदा की सतह से और भी अधिक वेग से टकराते हैं। वर्षा की बूंदें जब अनावृत मृदा के ऊपर गिरती हैं तो यह छोटे छोटे बमों की तरह व्यवहार करती हैं तथा मृदा कणों के विस्थापित कर देती हैं जिससे मृदा संरचना नष्ट हो जाती है। भूमि पर वनस्पति की उपस्थिति में वर्षा की बूंदें प्रत्यक्ष रूप से मृदा के ऊपर नहीं गिरती हैं और इस प्रकार वनस्पति आच्छादित क्षेत्र में मृदा अपरदन नहीं होता।

निरंतर वर्षा के कारण विस्थापित मृदा कण अन्य मृदा कणों के मध्य रिक्त स्थानों में भर जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप जल मिट्टी में अवशोषित नहीं हो पाता। कुछ समय पश्चात् यह जल भूमि पर एकत्रित हो जाता है जिसे वार्पा (ponding) कहते हैं। यह जल बहना शुरू हो जाता है। बहता हुआ यह जल अपवाह (Run off) कहलाता है और गदला होता है क्योंकि इसमें मृदा के विस्थापित कण होते हैं। जैसे-जैसे पानी बहता है मृदा की सतह का और अधिक अपरदन होता है। (चित्र 17. 3) इसी प्रकार पिघलती हुई बर्फ की बूंदें भी मृदा अपरदन का कारण होती हैं।

(ii) परत अपरदन

बहते हुए जल के द्वारा मृदा कणों का विलगन एवं निर्वासन (हट जाता) परत अपरदन कहलाता है। यह अत्यंत धीमी प्रक्रिया है और प्रायः दिखाई नहीं देती। (चित्र 17.4)

(iii) नलिका अपरदन

इस प्रकार के अपरदन में कृषि भूमि पर परत अपरदन के पश्चात उंगली के समान रिल्स (नलिकाएँ) बन जाती हैं (चित्र 17.5a)। जब यह बन रही होती हैं तो इन नलिकाओं की संख्या में प्रति वर्ष वृद्धि होती रहती है तथा ये गहरी एवं चौड़ी हो जाती हैं। जब इन नलिकाओं के आकार में वृद्धि हो जाती है तो ये अवनलिकाएं (Gullies) कहलाती हैं (चित्र 17.5b) घाटियां गहरी अवनलिकाएं ही हैं।

(iv) नदी तट अपरदन

बहते हुए जल द्वारा धाराओं अथवा नदियों के तटों से मृदा का अपरदन नदी तट अपरदन कहलाता है। कुछ क्षेत्रों में जहां नदी अपना मार्ग परिवर्तित कर लेती है, वहां किनारों के अपरदन की दर अधि क होती है। नदी तट अपरदन से निकटवर्ती कृषिक भूमि, राजमार्गों एवं सेतुओं को क्षति पहुंचती है। चित्र 17.6 में नदी तट अपरदन के पश्चात् होने वाले प्रभावों को दिखाया गया है।

(v) भूस्खलन

मृदा के एक बहुत बड़े द्रव्यमान का अचानक विस्थापित हो जाना भूस्खलन कहलाता है। गुरुत्व के सापेक्ष भूद्रव्यमान का संतुलन बिगड़ने अथवा अस्थिर हो जाने के कारण भूस्खलन होता है। असंतुलन मुख्य रूप में पृथ्वी में पाये जाने वाले अत्यधिक जल अथवा नमी के कारण होता है। गुरुत्वाकर्षण इस प्रकार के अस्थिर भूद्रव्यमान पर कार्य करता है तथा मृदा और चट्टानों जैसे पृष्ठीय पदार्थ को नीचे की ओर तेजी से खिसका देता है।

(vi) तटीय अपरदन

मृदा का तटीय अपरदन समुद्र तट के सहारे सहारे होता है। यह अपरदन समुद्री लहरों की क्रिया एवं समुद्र की धरातल की ओर भीतरी गति के कारण होता है (चित्र 17.7)

मृदा अपरदन के परिणामः

1. जमीन की ऊपरी परत की मृदा के वे बारीक कण, जिनमें पादपों के लिए आवश्यक पोषक तत्व एवं कार्बनिक पदार्थ मौजूद होते हैं, मृदा अपरदन के कारण नष्ट हो जाते हैं। अपरदन मृदा के सर्वाधिक उपजाऊ भाग को नष्ट कर देता है। कम उपजाऊ उपमृदा शेष रह जाती है।

2. अपरदन के परिणामस्वरूप बीज तथा पौधे नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार मृदा अनावृत हो जाती है। अनावृत मृदा पर वायु एवं जल के द्वारा होने वाला अपरदन अधिक होता है। (चित्र 17.8)

3. बीजों एवं पौधों के नष्ट हो जाने के कारण मृदा की जल धारिता का ह्रास होता है।

4. परत, रिल, अवनलिका तथा नदी तट अपरदन के कारण नदियों, नालों एवं खेतों में गाद एकत्रित हो जाती है। गाद एकत्रित होने के कारण फसलें एवं चारागाह नष्ट हो जाते हैं तथा नालों, बांधों एवं जलाशयों इत्यादि जैसे जल निकायों में अवसादन होता है।

5. जल निकायों में अवसादन के कारण जल की गुणवत्ता विकृत हो जाती है तथा जलीय प्राकृतिक वास एवं जीव नष्ट हो जाते हैं।

6. अवनालिका अपरदन के कारण भी बहुत अधिक मात्रा में मृदा नष्ट हो जाती है। वृहत एवं गहरी अवनालिकाऐं कभी-कभी 30 मीटर तक पहुंच जाती हैं और भूमि के उपयोग को अत्यधिक सीमित कर देती हैं।

7. बड़ी अवनालिकाऐं सामान्य खेती-बारी में व्यवधान उत्पन्न करती हैं।

8. नदी तट अपरदन से न केवल भूमि ही नष्ट नहीं होती अपितु नदी-नाले के प्रवाह पथ भी परिवर्तित हो जाते हैं।

9. नदी तट अपरदन के कारण सार्वजनिक सड़कों को भी नुकसान पहुंचता है।

10. एक बड़े भूभाग के विस्थापन अथवा भूस्खलन के कारण भी कृषि उत्पादन एवं भूमि उपयोग सीमित हो जाता है।

 

11. भूस्खलन मनुष्यों एवं प्राणियों की मृत्यु का कारण भी बन सकता है।

12. समुद्र तटीय अपरदन के कारण निकटवर्ती भूमि रेत से ढक जाती है।

मृदा अपरदन की रोकथाम

1. वनस्पतिक आच्छादन को बनाए रखना आवश्यक है ताकि मृदा वर्षा के जल के साथ बहने न पाये, चित्र 17.8 पुनः देखिए। वनस्पति आच्छादन आवश्यक है क्योंकि पौधों की जड़ें मृदा कणों को एक जगह बांधे रखती हैं। पौधे वर्षा के जल को बहने से रोकते हैं, जिसके कारण मृदा पर वर्षा की बूंदों का प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता है।

2. पशुओं के चरने को नियंत्रित किया जाना चाहिए।

3. फसल चक्रीकरण तथा परती भूमि (मृदा को कुछ समय के लिए खाली छोड़ना) जैसे कृषि सम्बन्धी क्रियाकलापों को अपनाना चाहिए।

4. मृदा में कार्बनिक पदार्थ को बढ़ाने के लिए वनस्पति एवं मृदा प्रबंधन में सुधार करना चाहिए।

5. नदी तट अपरदन को रोकने के लिए अपवाह जल को जलग्रहण क्षेत्रों में संचित करना चाहिए ताकि वनस्पतिक आच्छादन को बनाये रखा जा सके और बांध बनाकर जल को संग्रहित किया जा सके।

6. समुद्र तटीय अपरदन को रोकने अथवा कम करने के लिए, तटों के साथ-साथ सुरक्षात्मक वनस्पति को पुनः रोपित किया जाना चाहिए। तटीय अपरदन को रोकने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि बालू के टीलों एवं तटीय तंत्र में किसी प्रकार का कोई विघ्न न डाला जाए। भवनों का निर्माण एवं अन्य विकास कार्यों को बालू के टीलों से दूरी पर स्थापित करना चाहिए।

17.3.2 वायु अपरदन (Wind erosion)

वायु (पवन) द्वारा मृदा का अपरदन उन क्षेत्रों में सामान्य घटना है जहां प्राकृतिक वनस्पति नष्ट हो चुकी है। इस प्रकार की परिस्थितियां मुख्यतः शुष्क एवं मरुस्थलीय क्षेत्रों के साथ-साथ समुद्रों, झीलों व नदियो के रेतीले तटों पर पायी जाती है। मृदा के शिथिल कण निम्नलिखित तीन तरीकों से वायु के द्वारा उड़ जाते हैं तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते हैं।

(i) अवसादनः थोड़ी-थोड़ी अवधि के बाद पवन के साथ उड़ जाना।

(ii) निलंबनः निलंबित कणों के रूप में लम्बी दूरी तक मृदा का उड़ जाना।

(iii) पृष्ठ विसर्पणः अत्यधिक वेग से चलने वाली पवन के द्वारा धरातल पर मृदा का उड़ जाना।

वायु अपरदन के परिणाम

1. वायु अपरदन के कारण कार्बनिक पदार्थ, चिकनी मिट्टी तथा गाद सहित मृदा के सूक्ष्म कण निलंबन (कोलाइडल) के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाते हैं तथा अपने पीछे कम उपजाऊ पदार्थ छोड़ जाते हैं। चित्र 17.8 को एक बार फिर देखिए।

2. मृदा की उत्पादन क्षमता कम हो जाती है क्योंकि अधिकतर पादप पोषक तत्व जो छोटे कोलइडी मृदा खंडों से बंधे होते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं।

3. वायु अपरदन के कारण सड़कों एवं उपजाऊ कृषि क्षेत्रों को भी क्षति पहुंचती है क्योंकि पवन के द्वारा उड़ाए गए मृदा कण अत्यधिक मात्रा में इन स्थानों पर एकत्रित हो जाते हैं।

मृदा अपरदन की रोकथाम के लिए सुधारात्मक कार्यनीतियां

1. रेतीली मिट्टियों के ऊपर वानस्पतिक आच्छादन 30% से अधिक होना चाहिए। ठूंठ अथवा अधसड़ी घास को मृदा में छोड़कर हवा की पहुंच पर नियंत्रण किया जाना चाहिए। (ठूंठ फसली पादपों का वह भाग है जो फसल काटने के पश्चात मृदा में धँसे रह जाते हैं)

2. वातरोधी के तौर पर वृक्षारोपण के द्वारा वायु की गति को कम अथवा नियंत्रित किया जा सकता है।

3. भूमि को परती छोड़ने (अर्थात खेत में कुछ भी नहीं बोना) की पद्धति एवं मशीनों के उपयोग को रूपांतरित किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए प्रत्यक्ष खुदाई की तकनीक (खेत की जुताई) का उपयोग किया जा सकता है।

4. पशुओं द्वारा अतिचारण को रोकना चाहिए।

 

17.4 मानव क्रियाकलापों के कारण मृदा अपरदन

कई मानव गतिविधियां मृदा अपरदन का कारण हैं।

Ø  वनोन्मूलन

Ø  कृषि

Ø  खनन

Ø  विकास संबंधित कार्य, मानव बस्तियां एवं परिवहन।

17.4.1 वनोन्मूलन

वनोन्मूलन में वृक्षों को काटना एवं गिराना, वन्य वनस्पतियों का सफाया, पशुओं द्वारा खेतों को खुरों द्वारा रौंदना एवं चारण सम्मिलित हैं। जंगल में लगने वाली आग से भी वनोन्मूलन को बढ़ावा मिलता है। वनोन्मूलन के कारण अपरदन होता है। वनोन्मूलन से भूमि एवं पोषक तत्वों का अपक्षीर्णन होता है। मृदा और पौधों के बीच बना हुआ सूक्ष्म संबंध समाप्त हो जाता है।

17.4.2 कृषि

कृषि वह मुख्य मानव क्रियाकलाप है जिसके कारण मृदा का अपरदन होता है। फसलों को उगाया जाता है, उन्हें काटा जाता है, भूमि की पुनः जुताई की जाती है जिससे मृदा कभी पानी के लिए तो कभी वायु के लिए अनावृत हो जाती है। इन सभी के कारण आर्द्रता की पूर्ति में रुकावट पैदा होती है। कृषि के कारण खेतों से मृदा के बह जाने या परत अपरदन के रूप में अत्यंत अवांछनीय प्रकार का मृदा अपरदन होता है। शुष्क एवं अर्धशुष्क क्षेत्रों से रेत का तूफान तथा रेत का विस्थापन उसी प्रकार कार्य करते हैं जिस प्रकार परत अपरदन में होता है। परत अपरदन का मुख्य कारक जल है। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे मरुस्थलीकरण की प्रक्रिया आगे बढ़ती है तथा भूमि की उर्वरता उत्तरोत्तर नष्ट होती जाती है।

निम्नलिखित कृषि पद्धतियां मृदा अपरदन को बढ़ावा देती हैं:

1. खुदाई अथवा जुताईः इसके कारण अपरदन की संभावना बढ़ जाती है क्योंकि यह प्राकृतिक मृदा की सतह तथा रक्षात्मक वनस्पति को बाधित कर देती हैं।

2. सतत कृषिः एक ही खेत में लगातार बिना विराम दिए कृषि करते रहना और सीमांत तथा अवसीमांत भूमि पर भी कृषि आरंभ करना मृदा अपरदन को बढ़ावा देता हैं।

3. पर्वतीय ढलानों पर खेतीः उपयुक्त भूमि उपचार उपायों जैसे परिसीमन (Bounding), सीढ़ीदार खेत बनाना (Terracing), खाई बनाना (Trenching), आदि के बिना पर्वतीय क्षेत्रों में खेती करने से मृदा अपरदन एवं पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं।

4. एकल कृषि (संवर्धन): खेत में एक ही किस्म की फसल उगाने की पद्धति एकल कृषि कहलाता है। एकल कृषि पद्धति के द्वारा भी तीन प्रकार से मृदा अपरदन हो सकता है।

(i) एकल कृषि के अन्तर्गत फसल को एक ही समय पर बोया जाता है, जिसके कारण पूरा खेत खाली पड़ा रहता है तथा यह वायु एवं जल के लिए अनावृत हो जाती है।

(ii) वनस्पति के बिना वर्षा का जल मिट्टी में नहीं रुक पाता है तथा मिट्टी में अवशोषित होने के बजाए सतह से होकर तेजी से बह जाता है। यह अपने साथ मृदा की सबसे ऊपरी परत को भी बहा ले जाता है जिससे मृदा का अपरदन एवं अवक्षीर्णन होता है।

(iii) यदि खेत में किसी रोग अथवा पीड़क का आक्रमण होता है तो सामान्यतया पूरी फसल नष्ट हो जाती है तथा मृदा अनावृत हो जाती है और जल तथा वायु के प्रति संवेदनशील हो जाती है।

5. अतिचारण (Overgrazing): इसका अर्थ है कि घास के मैदान के एक भाग पर अत्यधि क पशुओं को चरने देना। पशुओं के द्वारा चरने तथा खुरों से जमीन को रौंदने के कारण उस क्षेत्र की वनस्पति नष्ट हो जाती है। देखिए चित्र 17.9, पर्याप्त वनस्पतिक आच्छादन की अनुपस्थिति में मृदा जल एवं वायु के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हो जाती है।

6. आर्थिक गतिविधियांः आर्थिक क्रियाकलापों के कारण भी मृदा अपरदन होता है। भूमि से उपयोगी प्राकृतिक संसाधनों जैसे धातुएं, खनिज तथा जीवाश्म ईंधन इत्यादि के निष्कर्षण के कारण भूमि गंभीर रूप से बाधित होती है तथा इससे मृदा अपरदन होता है और भूदृष्य में प्रचंड परिवर्तन आ जाते हैं।

7. विकास कार्यः विभिन्न विकास कार्यों जैसे भवन निर्माण, परिवहन, संचार, मनोरंजन आदि के कारण भी मृदा अपरदन होता है। भवन निर्माण भी मृदा अपरदन को बढ़ावा देता है क्योंकि भवन, सड़कें, रेलमार्ग इत्यादि के निर्माण के दौरान त्वरित मृदा अपरदन होता है।

इस प्रकार के निर्माण कार्यों की वजह से भूमि अत्यधिक असंतुलित हो जाती है जिससे मृदा अपरदन होता है। इसी के साथ साथ प्राकृतिक जल निकास तंत्र भी बाधित होता है।

17.5 भूमि अपक्षीर्णन (LAND DEGRADATION)

अपक्षीर्णित भूमि का वर्गीकरण भूमि की उत्पादक क्षमता के आधार पर किया जाता है। जब फसल उत्पादन क्षमता में 10% का ह्रास हो जाता है तो इस स्थिति को हल्का अपक्षीर्णन कहा जाता है तथा फसल उत्पादन में 10-15% का ह्रास मध्यम अपक्षीर्णन कहलाता है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि भूमि गम्भीर रूप से अपक्षीर्णित हो चुकी है एवं इसका 50% फसल उगाने की क्षमता (उत्पादन क्षमता) नष्ट हो चुकी है।

भूमि अवक्षीर्णन के कुछ कारण निम्नलिखित हैं:

Ø  कृषि रसायनों (रासायनिक उर्वरक एवं पीड़कनाशियों) का उपयोग।

Ø  अत्यधिक सिंचाई।

Ø  अत्यधिक उपज वाली पादप किस्मों की खेती।

17.5.1 कृषि रसायन एवं भूमि पर पड़ने वाले इनके दुष्प्रभाव

भूमि में कृषि रसायनों का उपयोग निम्नलिखित दो उद्देश्यों से किया जाता है:

(i) रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से पोषकों का पुनर्भरण करने के लिए।

(ii) पीड़कनाशी नामक विषाक्त रसायनों के उपयोग से पादप पीड़कों को नष्ट करने के लिए।

(i) रासायनिक उर्वरकों के उपयोग के हानिकारक प्रभाव

पौधे जमीन से पोषकों को ग्रहण करते हैं। फसलों की पुनरावृत्ति करने से मृदा में पोषक तत्वों का अभाव हो जाता है। इसलिए समय-समय पर रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से मिट्टी में पोषक तत्वों का पुनर्भरण किया जाता है, परन्तु रासायनिक उर्वरकों एवं पीड़कनाशियों का अत्यधिक उपयोग करने से निम्नलिखित समस्याऐं उत्पन्न हो जाती हैं।

मृदा पोषकों में व्याप्त असंतुलनः आधुनिक कृषि में उपयोग किए जाने वाले अधिकतर रासायनिक उर्वरकों में नाइट्रोजन, फास्फोरस तथा पौटेशियम (NPK) जैसे पोषक उपस्थित होते हैं। मृदा में NPK की अत्यधिक मात्रा मिलाने से पादप मिट्टी से सूक्ष्म पोषकों का अधिक अवशोषण करते हैं। इसके परिणामस्वरूप मृदा में जिंक, लौह, कापर इत्यादि जैसे सूक्ष्मपोषकों का अभाव हो जाता है तथा मृदा की उत्पादन क्षमता घट जाती है।

जल निकायों में सुपोषणः वह उर्वरक जो पादपों द्वारा उपयोग में नहीं लाए जाते हैं। वर्षा के जल के साथ बहकर जल निकायों में पहुंच जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप सुपोषण अथवा शैवाल वृद्धि (Algal bloom) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण जलीय जीवों की मृत्यु हो जाती है।

स्वास्थ्य समस्याऐं: मिट्टी में डाले गए उर्वरकों का एक चौथाई भाग फसल के पौधों द्वारा उपयोग में नहीं लाया जाता है तथा यह मिट्टी में अवशोषित होकर भूमिगत जलवाही स्तर तक पहुंच जाते हैं। वह रसायन जो सामान्यतया मिट्टी में अवशोषित होता है, नाइट्रेट है। पेयजल में इसके अधिक सान्द्रण के कारण गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं। जल में नाइट्रेट की अधिक मात्रा के कारण विशेषकर बोतल से दूध पीने वाले शिशुओं में मीथेमोग्लाबिनीमिया नामक रोग हो जाता है।

(ii) पादप रक्षक रसायनों के उपयोग के प्रतिकूल प्रभाव

फसलों के पीड़कों को मारने के लिए विषाक्त रासायनों का उपयोग होता है। (चित्र 17.10) कीटनाशी, खरपतवारनाशी, कवकनाशी, कृन्तकनाशी जैसे विषाक्त रासायनों का उपयोग सामान्यतया कीटों, खरपतवारों, कवकों एवं कृन्तकों को मारने के लिए किया जाता है ताकि फसलें इनके आक्रमण से सुरक्षित रहें। ये विषैले रसायन सामूहिक रूप से जैवनाशक कहलाते हैं। यह चयनात्मक नहीं होते हैं अर्थात ये केवल लक्ष्य पीड़कों को ही नहीं मारते हैं बल्कि अन्य उपयोगी एवं ऐसे जीवों को भी मार देते हैं जो इनका लक्ष्य नहीं होते हैं। इसके अतिरिक्त जैवनाशियों में यह प्रवृत्ति होती है कि ये लक्ष्य जीवों जैसे पीड़कों, खरपतवारों, कवकों, एवं कृन्तकों को समाप्त करने के बाद लंबे समय तक सक्रिय बने रहते हैं।

जैवनाशियों का निरंतर उपयोग करने से विभिन्न समस्याऐं उत्पन्न हो जाती हैं जो निम्नलिखित हैं:

1. ये खाद्य पदार्थों एवं पेयजल को दूषित कर देते हैं।

2. ये लाभदायक जीवों को भी मारकर प्राकृतिक पारितंत्र में असंतुलन पैदा कर देते हैं।

3. जैवनाशियों के निरंतर उपयोग से पीड़कों में धीरे-धीरे इन रसायनों के विरुद्ध प्रतिरक्षा में वृद्धि होती जाती है। एक अवधि के पश्चात ये जैवनाशी पीड़कों के विरुद्ध अप्रभावी हो जाते हैं तथा पीड़कों में अत्यधिक गुणन का कारण बन जाते हैं।

4. इनमें से अधिकतर रसायन दीर्घस्थायी एवं अजैवनिम्नकरणीय होते हैं तथा खाद्य श्रृंखला में प्रवेश करके पादप अथवा जन्तु शरीर में बने रहते हैं। जैव आवर्धन के कारण खाद्य श्रृंखला के द्वारा जीवों में इनका सान्द्रण उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है।

 

17.5.2 अधिक सिंचाई के कारण उत्पन्न समस्याऐं

मृदा में अधिक सिंचाई के कारण जल भराव एवं मृदा में लवणों का संचयन जैसी समस्याऐं उत्पन्न हो जाती हैं। ये दोनों मृदा को अपक्षीर्णित करते हैं।

(i) जल भरावः उपयुक्त जल निकासी के बगैर भूमि की अत्यधिक सिंचाई करने से भूमिगत जल स्तर ऊपर उठ जाता है। इसके कारण मिट्टी जल से पूरी तरह भीगी रहती है या उसमें जल भरा रहता है। जल मग्न मृदा में पादप अच्छी तरह वृद्धि नहीं कर पाते क्योंकि ऐसी मृदा में वायु विशेषकर आक्सीजन का अभाव होता है जोकि पादपों की जड़ों के श्वसन के लिए आवश्यक है। जलमग्न मृदा में यांत्रिक शक्ति का अभाव होता है और यह पादपों के भार को सहारा नहीं दे सकती परिणामस्वरूप पादप गिर जाते हैं तथा कीचड़ में धंस जाते हैं। इससे मृदा की उत्पादकता में कमी आ जाती है।

ii) लवण कृतकता (Salt affectation): अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में भूमि की अत्यधिक (सिंचाई करने पर सामान्यतया उसमें लवण एकत्रित हो जाते हैं। क्योंकि जल तेजी से वाष्पीकृत हो जाता है और लवण मिट्टी में रह जाते हैं। जब बार-बार सिंचाई की जाती है तो बचे हुए लवण एकत्रित होकर पृष्ठ पर धूसर (स्लेटी) अथवा श्वेत रंग की परत बन जाती है (चित्र 17.10) ।

लवण की अधिकता से प्रभावित मृदा की उत्पादकता कम होती है। लवणीय मृदा में पादप पोषक तत्वों को अवशोषित करने में असमर्थ रहते हैं और उस स्थिति में भी जल तनाव (जल अभाव) का सामना करते हैं जबकि मृदा में नमी की अधिकता होती है।

 

17.5.3 अधिक उपज वाली पादप किस्मों के कारण मृदा अपक्षीर्णन

अधिक उपज देने वाली किस्मों (High Yielding Varieties, HYV) से खाद्य उत्पादन में वृद्धि तो हुई है परन्तु इसके साथ-साथ इन्होंने पर्यावरण को बहुत अधिक प्रभावित किया है। कृषि पादपों, चारा-पादपों, वन्य वृक्षों, पालतू पशुओं एवं मछलियों की अनेकों मानवजनित किस्में हैं। इसका अर्थ है कि HYV विभिन्न प्रजनन तकनीकों के द्वारा तैयार की जाती है ताकि उत्पादन में वृद्धि हो सके। HYV को अधिक सिंचाई एवं उर्वरकों व पीड़कनाशियों की आवश्यकता होती है। आप 17.5.1 में पहले ही अध्ययन कर चुके हैं कि कृषि रसायन किस प्रकार भूमि को अपक्षीर्णित करते हैं।

 

17.6 मृदा अपक्षीर्णन की रोकथाम के लिए कृषि तकनीकें

कृषि योग्य भूमि का संरक्षण केवल भूमि के अपरदन एवं अपक्षीर्णन की रोकथाम के उपायों के द्वारा ही नहीं किया जा सकता, जिसका अध्ययन आप अनुभाग 17.7 में कर चुके हैं, बल्कि नवीन कृषि तकनीकों के द्वारा भी इस उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। जैसेः

(i) जैव कृषि अथवा हरित खाद

(ii) जैव उर्वरक

(iii) जैविक पीड़क नियंत्रण

17.6.1 जैव कृषि अथवा हरित खाद

मृदा में नाइट्रोजन की पूर्ति के लिए रासायनिक उर्वरकों के बजाय हम प्राकृतिक विधि का उपयोग कर सकते हैं। इसके अन्तर्गत दलहनी पौधों की जड़ गांठों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण बैक्टीरिया का उपयोग किया जाता है (चित्र 17.12)। इसके साथ-साथ उर्वरकों के जैविक रूप जैसे गाय का गोबर, कृषि अपशिष्टों का उपयोग भी मृदा में पोषक तत्वों की दशा को सुधारता है। इससे रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक एवं दीर्घकालीन उपयोग को भी कम करने में सहायता मिल सकती है और इस प्रकार इनके विषाक्त प्रभाव को कम किया जा सकता है।

17.6.2 जैव उर्वरक

सूक्ष्म जीव उपजाऊ मृदा के महत्वपूर्ण घटक हैं। ये मृदा के संरचना विकास में भाग लेते हैं। उपलब्ध पोषकतापूर्ण तत्वों को बढ़ाते हैं तथा मृदा की भौतिक अवस्थाओं में सुधार लाते हैं। सूक्ष्म जीवों की अनेकों किस्मों का उपयोग फसल के खेतों को पोषकतापूर्ण अवस्था में सुधार लाने के लिए जैव उर्वरकों के रूप में किया जा रहा है।

17.6.3 जैविक पीड़क नियंत्रण (जैविक नियंत्रण)

पीड़कों के प्राकृतिक परभक्षी एवं परजीवी पादप पीड़कों एवं रोगजनकों को नियंत्रित करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। आजकल किसान पादप पीड़कों को समाप्त करने अथवा उन्हें नियंत्रित करने में इनका उपयोग करते हैं।

पीड़कों के जैविक नियंत्रण एजेन्ट खाद्य श्रंखला में प्रवेश नहीं करते या जीवों को विषाक्त नही करते अतः इनसे मनुष्यों को कोई हानि नहीं होती। पीड़कों का जैविक नियंत्रण रासायनिक पीड़क नियंत्रण का पारिस्थितिकी की दृष्टि से एक अच्छा विकल्प है।

कपास का कुशन स्केल पीड़क (आइसर्या पुरकाहसी) (चित्र 17.13क) को बड़े पैमाने पर इसके परभक्षी लेडी बर्ड बीटल (चित्र 17.13ख) द्वारा जैविक रूप से नियंत्रित किया जाता है। वर्तमान में लगभग 15000 प्राकृतिक तौर पर पाये जाने वाले ऐसे सूक्ष्मजीवों अथवा सूक्ष्मजीवीय गौण उत्पादों की पहचान की गई है जो सम्भवतः जैविक पीड़कनाशी के रूप में उपयोग में लाये जाते हैं।


17.7 मृदा अपरदन एवं भूमि अपक्षीर्णन की रोकथाम के उपाय

(क) वृक्षारोपण

वायु अपरदन की रोकथाम के लिए इस प्रकार वृक्षारोपण किया जाना चाहिए कि वे वायु के वेग को कम कर सकें। वृक्ष मृदा को न केवल सूर्य, वायु एवं जल से सुरक्षित रखते हैं बल्कि ये मृदा कणों को जकड़ कर रखते हैं।

(ख) खेती एवं कृषि तकनीकें

कुछ कृषि तकनीकें भी मृदा अपरदन को कम करने में सहायक होती हैं। ये तकनीकें निम्नलिखित हैं:

(i) वायु की दिशा के लम्बवत (समकोण पर) फसलें उगाने से वायु द्वारा मिट्टी का अपरदन कम होता है।

(ii) जुताई का तरीकाः जुताई का तरीका मूल रूप से अपरदन को कम करता है। (चित्र 17.14)। ढलान के साथ समकोण बनाते हुए खेत की जुताई करने का तरीका समोच्च जुताई कहलाता है। इससे मृदा अपरदन को कम करने में सहायता मिलती है। समोच्च जुताई के द्वारा बनने वली मेड़ छोटे- छोटे बांधों के रूप में कार्य करती हैं और पानी को रोककर रखती हैं तथा इसके बहने को रोककर मृदा में इसके रिसाव में सहायता करती हैं जिससे मृदा अपरदन नहीं होता। समोच्च जुताई से मृदा अपरदन 50% प्रतिशत तक कम हो जाता है।

(iii) स्ट्रिप खेती (Strip farming): यह मृदा अपरदन को रोकने की एक और विधि है। इस विधि के अन्तर्गत मुख्य फसल को दूर-दूर बनी पंक्तियों में बोया जाता है तथा पंक्तियों के मध्य रिक्त स्थानों में दूसरी फसल को इस तरह बोया जाता है कि सारी भूमि ढक जाए। भूमि पूर्ण रूप से ढकी होने के कारण पानी के बहाव की गति कम हो जाती है और इस प्रकार जल रिसकर मृदा में चला जाता है। इसके परिणामस्वरूप अपरदन की समस्या कम हो जाती है। (चित्र 17.14)


(iv) सीढ़ीदार खेतीः यह पर्वतीय ढलानों पर मृदा अपरदन को कम करने की एक और विधि है। इस विधि में खड़ी ढलानों पर सीढ़ियां बनाई जाती हैं। यह पौधे उगाने और मृदा अपरदन को रोकने की एक और विधि है। सामान्यतयाः ढलानों को समतल खेतों के रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है जिससे नीचे की ओर बहने वाले पानी की गति कम हो जाती है। यद्यपि सीढ़ीदार खेत स्वयं आसानी से अपरदित हो जाते हैं तथा इनकी देखभाल व मरम्मत भी बहुत अधिक करनी पड़ती है।

(v) वह समय और ऋतु जिसमें खेत की जुताई की जाती है वह भी वर्ष के दौरान होने वाले अपरदन या मात्रा को मुख्य रूप से प्रभावित करता है। अगर खेत की जुताई शरद ऋतु में की जाती है तो मृदा अपरदन पूरी शरद ऋतु तक होता रहता है। यद्यपि अगर भूमि बसंत ऋतु तक वनस्पति से आच्छादित रहती है तो अपरदन अधिक समय तक नहीं हो सकेगा।

(vi) गैर जुताई (No-till) खेती का उपयोग भी मृदा अपरदन को रोकने की विधि के रूप में किया जाता है। ऐसी विशिष्ट मशीनें उपलब्ध हैं जो मिट्टी में कम से कम व्यवधान उत्पन्न करके एक ही साथ मिट्टी को ढीला कर सकती हैं, बीजों की बुवाई कर सकती हैं एवं खरपतवार पर नियंत्रण रख सकती हैं क्योंकि ये सभी पहलू एक ही समय पर क्रियान्वित होते हैं अतः अपरदन को घटित होने के लिए बहुत कम समय मिल पाता है। (चित्र 17.15) यद्यपि इस कृषि पद्धति का प्रतिकूल प्रभाव भी है जैसे खरपतवार एवं कीटों की जनसंख्या में वृद्धि हो सकती है क्योंकि इन्हें लगातार नहीं निकाला जाता है और इससे फसल नष्ट हो सकती है।

 

 

(vii) बहुकिस्मी खेती के द्वारा भी मृदा के अपरदन को रोकने में सहायता मिलती है। इस विधि के अन्तर्गत खेत में एक ही फसल की कई किस्मों को बोया जाता है। क्योंकि हर किस्म की कटाई का समय अलग-अलग है इसलिए इन्हें अलग-अलग समय पर काटा जाता है। क्योंकि पूरे खेत की कटाई एक ही समय पर नहीं होती है इसलिए यह एक साथ अनावृत नहीं हो पाता और भूमि अपरदन से सुरक्षित रहती है।

(vii) मृदा में कार्बनिक पदार्थ मिलाना भी मृदा अपरदन को कम करने की एक महत्वपूर्ण विधि है। इसके अन्तर्गत फसल के अपशिष्टों को हल चलाकर मृदा में मिला दिया जाता है या इसी उद्देश्य से उगाई गई पूरी फसल को हल चलाकर मृदा में मिला देते हैं। मृदा में सूक्ष्म जीव कार्बनिक पदार्थ का अपघटन करके पॉलीसैकरॉइड उत्पन्न करते हैं। यह चिपचिपे होते हैं तथा मृदा कणों में सरेस (गोंद) का काम करते हैं जिससे मृदा कण एक दूसरे से चिपके रहते हैं और इस प्रकार अपरदन को रोकने में सहायता करते हैं।

आपने क्या सीखा

·          भूमि की गुणवत्ता में अपकर्ष भूमि अपक्षीर्णन कहलाता है।

·          मृदा अपरदन एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जिसमें मृदा कण शिथिल एवं विस्थापित हो जाते हैं।

·          मृदा अपरदन की धीमी दर सामान्यतया एक प्राकृतिक परिघटना है तथा इसे भूवैज्ञानिक अपरदन कहते हैं।

·          तीव्र अथवा त्वरित मृदा अपरदन (i) प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़ एवं (ii) मानवीय क्रियाकलापों के कारण हो सकता है।

·          जल एवं वायु ऐसे प्राकृतिक कारक हैं जो मृदा अपरदन के लिए उत्तरदायी हैं।

·          जल द्वारा मृदा अपरदन बहते हुए जल के कारण होता है जो अपने साथ मृदा को बहा ले जाता है।

·          जल द्वारा मृदा अपरदन (I) वर्षा बूंद अपरदन (ii) परत अपरदन (iii) नलिका अपरदन (iv) नदी तट अपरदन (v) भूस्खलन के कारण मृदा अपरदन एवं (vi) समुद्र तटीय अपरदन के रूप में हो सकता है।

·          जल द्वारा मृदा अपरदन को (I) मृदा के वनस्पति से आच्छादित करके (ii) फसल चक्रीकरण एवं परती भूमि पद्धति द्वारा (iii) पशुओं के चरने को नियंत्रित करके (iv) मृदा में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में सुधार करके रोका जा सकता है।

·          वायु द्वारा मृदा का अपरदन सामान्यतया उस समय होता है जब भूमि में पर्याप्त वनस्पति का अभाव होता है तथा वनस्पति मृदा को आवृत करने एवं उसे पकड़ कर रखने में सक्षम नहीं होती, इस प्रकार का मृदा अपरदन शुष्क क्षेत्रों में होता है।

·          वायु मृदा को हटा देती है अथवा उसे एक जगह से दूसरी जगह पहुंचा देती है तथा (i) अवसादन (ii) निलंबन एवं (iii) पृष्ठ विसर्पण द्वारा मृदा अपरदन का कारण है।

·          वायु द्वारा अपरदन को (I) रेतीली मिट्टी के ऊपर वनस्पतिक आच्छादन 30% से अधिक बनाए रखकर एवं मृदा की सतह से कटी हुई फसलों के ठूंठ को बाहर न निकालकर (ii) नियंत्रित वृक्षारोपण जो एक वातरोधी पट्टी के तौर पर कार्य करते हुए वायु की गति को कम करता है (iii) परती भूमि पद्धति में सुधार करके तथा (iv) पशुओं के चरने को नियंत्रित करके रोका जा सकता है।

·          भूमि अपक्षीर्णन का वर्गीकरण भूमि की उत्पादक क्षमता के आधार पर किया जाता है। (I) जब फसल उत्पादन क्षमता में 10 प्रतिशत का ह्रास होता है तो इसे हल्का अपक्षीर्णन कहा जाता है (ii) जब फसल उत्पादन में 10-15 प्रतिशत का ह्रास मध्यम अपक्षीर्णन कहलाता है तथा (iii) 50 प्रतिशत से अधिक उत्पादन क्षमता में हास गम्भीर अपक्षीर्णन कहलाता है।

·          कृषि रसायन जैसे मृदा में पोषक तत्वों के पुनर्भरण के लिए उपयोग किए जाने वाले रासायनिक उर्वरक तथा पादप रक्षक रसायन (जैव नाशी) सामूहिक रूप से मृदा में कई समस्याएँ उत्पन्न करते हैं जिसमें भूमि का अपक्षीर्णन भी सम्मिलित है।

·          उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण (I) मृदा में सूक्ष्मपोषकों का ह्रास तथा (ii) जल में नाइट्रेटों का आधिक्य तथा झीलों एवं नदियों सहित अलवण जलीय निकायों का सुपोषण होता है।

·          जैवनाशियों के अनुप्रयोग से पीड़कों के साथ साथ ऐसे जीव भी मर जाते हैं जो इनका लक्ष्य नहीं होते हैं।

·          खेतों में, विशेषकर ऐसे क्षेत्र जहां तापमान अधिक होता है, अत्यधिक सिंचाई के कारण जल भराव एवं लवणता (क्षारीय लवणों की अधिकता) की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। अत्यधिक सिंचाई के कारण भूमिगत जल संसाधनों का अभाव हो जाता है तथा जल स्तर बढ़ जाता है।

·          नवीन कृषि तकनीकों का उपयोग करके मृदा अपरदन को नियंत्रित अथवा रोका जा सकता है।

·          मृदा की दशा को सुधारने के लिए निम्नलिखित उपाए किए जा सकते हैं। (I) वायु की गति को कम करने के लिए वृक्षारोपण (ii) विशिष्ट कृषि तकनीकों को अपनाकर जैसे वायु की दिशा के साथ समकोण बनाते हुए जुताई करना, समोच्च खेती, स्ट्रीप (पट्टीदार) खेती, सीढ़ीदार खेती. (iii) खेत को अधिकतम समय तक वनस्पति से आच्छादित करके (iv) खेत में जुताई न करके (v) खेतों में बहु किस्मी कृषि पद्धति अपनाकर (vi) मृदा में कार्बनिक पदार्थ मिलाकर।

 

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